Share on facebook
Share on twitter
Share on whatsapp
Share on email

धर्म का मूल-तत्व लोकमंगल है यही ‘यदा यदा ही धर्मस्य…….. का शाश्वत रहस्य है

हिन्द संबाद आसनसोल इम्तियाज़ खान : आज लोग धर्म के नाम पर अधर्म कर रहे है हर पंथ हर धर्म में जहा मानव सेवा को ही पराम् धर्म कहा गया है वही आज ठीक उसका उल्टा किया जा रहा है और एक इंसान दूसरे इंसान पर प्रहार धर्म में नाम पर कर रहे इंसान इंसानियत भूल गए है धर्म लोक-व्यवहार, सदाचार और मानवीय-गरिमा की संरक्षक मर्यादाओं के निर्देशन एवं पालन की संज्ञा है। धर्म का मूल-तत्व लोकमंगल है। प्रायः विश्व के सभी धर्मों के मूल में लोकमंगल की प्रेरणा ही सक्रिय रही है किंतु मानव-सभ्यता के इतिहास में जब-जब व्यापक लोकमंगल की उपेक्षा करके मनुष्य ने निजी स्वार्थों और अपनी सहज दुर्बलताओं के तटबंधों में बंधकर धर्म की निर्मल जलधारा को रुढ़ियों के बंधन में बांधा है तब-तब धर्म अपनी सार्थकता खोकर समाज के पतन का कारण बना है और इतिहास के पृष्ठ कलंकित हुए हैं। भीष्म एवं द्रोण आदि महारथियों की रूढ़िबद्ध धार्मिकता ने द्रौपदी के चीर-हरण को चुपचाप सहकर समाज को महाभारत युद्ध की ओर धकेला। निहित स्वार्थों के लिए समर्पित धृतराष्ट्र की अंधी राज्य-लिप्सा और अपरिमित पुत्रमोह को बल भीष्म की प्रतिज्ञा-पालन की रुढ़ि को धर्म समझने और द्रोण के ‘नमक का मूल्य चुकाने की’ धार्मिक रुढ़ियुक्त अविवेकपूर्ण राजभक्ति’ से मिला। भागते हुए शत्रु पर प्रहार न करने को ही बिना विचार किए धर्म मान लेने की मूर्खतापूर्ण धर्मरुढ़ि आक्रांता मोहम्मद गोरी को प्राणदान दिलाकर अंततः विजेता पृथ्वीराज के ही नाश का कारण नहीं बनी अपितु उसने समस्त भारतीय समाज के राजनीतिक-सांस्कृतिक जीवन को काँटों के पथ पर धकेल दिया। ‘हमारे विश्वास ही सर्वश्रेष्ठ हैं और समस्त विश्व के मानव समुदाय को हम अपने ही विश्वासों के रंग में रंग लेंगे’– इस कथित धर्मप्रियता के कारण आज के वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न समाज में भी आतंकवाद और धर्मांतरण के काले कुचक्र चल रहे हैं और धर्म का मूल तत्व लोकमंगल घायल है धर्मो के आधार पर बटवारा मारपीट अत्याचार करना मूर्खता ही तो है । जब-जब जीवन के धरातल पर धर्म अपने लोक मंगलकारी स्वरूप को खोकर मूर्खतापूर्ण अंधी-रूढ़ियों के मकड़जाल में जकड़ कर अपनी शक्ति खोने लगता है तब-तब समाज में कोई राम, कोई कृष्ण, कोई मोहम्मद ,कोई ईशा , कोई मुशा , , कोई शंकराचार्य, कोई गोविंदसिंह अथवा विवेकानंद जन्म लेकर धर्म के मर्म को पुर्नव्ख्यायित करता है– समाज को दिशा देता है। यही ‘यदा यदा ही धर्मस्य…………’ का शाश्वत रहस्य है। जो व्यक्ति विवेक की कसौटी पर कसकर कर्तव्य-अकर्तव्य का विचार करके कर्म को लोक-कल्याण की दिशा में नियोजित करता है, वही सच्चा धार्मिक है; महापुरुष है; अवतार है, पूज्य है। श्री कृष्ण भी ऐसे ही लोकवन्द्य महापुरुष हैं। उन्होंने अपने युग में धर्म के नाम पर पल्लवित रूढ़ियों से संरक्षित शोषक-शक्तियों का विनाश कर मानवीय-गौरव को प्रतिष्ठित किया। उनके द्वारा उपदेशित गीता का ज्ञान मनुष्य के धार्मिक तत्व-चिंतन का वह उज्ज्वल आलोक है जिसका स्पर्श पाकर जटिल और गूढ़ धर्मतत्व से उत्पन्न भ्रांतियाँ स्वतः नष्ट हो जाती हैं तथा जीवन नैतिक-मानमूल्यों के अनुरूप भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त कर लेता है। श्रीकृष्ण ने बाल्यकाल से ही धार्मिक-रूढ़ियों पर प्रहार कर लोकजीवन को प्राकृतिक सहज-पथ की ओर निर्देशित किया। इंद्र-पूजा से गोवर्धन-पूजन की परम्परा का प्रारंभ जीवन के पोषक प्राकृतिक-तत्वों के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन का पुनप्रर्तिष्ठापन है। सामाजिक-जीवन में श्रीकृष्ण पग-पग पर नए लोकमंगलकारी धर्म के असंख्य अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। जन-सामान्य की दृष्टि में अपने से बड़े पद पर आसीन व्यक्ति अथवा संबंधी पर प्रहार अधर्म हो सकता है किन्तु कृष्ण की दृष्टि में यदि ऐसा व्यक्ति अपने धर्म का पालन नहीं करता और समाज के लिए संकट उत्पन्न करता है तो सर्वथा वध्य है। कंस ने अपने पिता महाराजा उग्रसेन को बंदी बनाकर पुत्रधर्म के विरुद्ध आचरण किया। बहिन देवकी और बहनोई वसुदेव को त्रास देते हुए अपने भान्जों का वध करके सामाजिक सम्बंधों की मर्यादा तार-तार कर दी और मथुरा की प्रजा को आतंकित कर राजधर्म का अनादर किया। ऐसा कंस कृष्ण की धर्म-दृष्टि के अनुसार सर्वथा वध्य बन गया जबकि राजा और मामा होने के कारण वह कृष्ण के लिए धर्मरूढ़ि से सर्वथा अवध्य और सेव्य सिद्ध होता है। श्रीकृष्ण की क्रांतिकारिणी लोकमंगलमुखी धर्मदृष्टि विवेकानुसार निर्णय कर उनके द्वारा कंस का वध कराती है और लोकहित को रक्त सम्बंधों पर वरीयता देती है।

Latest News