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विपक्ष ममता को हल्के में ना ले ममता बनर्जी भी योद्धा हैं बड़ी चुनौतियों पर विजय पाना है

हिन्द संबाद आसनसोल इम्तियाज़ खान : पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के पाँच दिवसीय दिल्ली दौरे से पहले ऐसा माहौल बना दिया गया था कि दिल्ली में बड़ा राजनीतिक भूचाल आने वाला है और विपक्ष का नेता कौन होगा, इस सवाल का जवाब मिलने वाला है। ममता बनर्जी खुद भी बड़ी उम्मीदों और आशाओं के साथ दिल्ली आईं लेकिन केंद्र की राजनीति के विपक्षी महारथियों ने उन्हें प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से साफ संकेत दे दिये कि अभी उनसे पहले कई लोग कतार में लगे हैं। लेकिन ममता बनर्जी भी योद्धा हैं वह दिल्ली की राजनीति कई वर्षों तक कर चुकी हैं इसीलिए जानती हैं कि यहाँ वापस से जगह बनाना इतना आसान नहीं है इसलिए दीदी ने तय किया है कि वह हर दो महीने में दिल्ली आयेंगी ताकि उनकी सक्रियता यहाँ बनी रहे। वैसे विपक्षी महारथियों ने भले ममता को नेतृत्व के मुद्दे पर टरका दिया हो लेकिन उन्हें एक बात जान लेनी चाहिए कि यदि वह ममता बनर्जी को अपना नेता मानने को तैयार नहीं हैं तो ममता बनर्जी भी उनमें से किसी को आसानी से अपना नेता मानने को तैयार नहीं होंगी। ममता बनर्जी ने सोनिया गांधी और अन्य विपक्षी नेताओं के साथ मुलाकात के बाद भले कह दिया हो कि भाजपा के खिलाफ बनने वाले गठबंधन का नेतृत्व कौन करेगा यह मुद्दा ही नहीं है और वक्त आने पर नेता का नाम तय हो जायेगा लेकिन सच्चाई यह है कि असल मुद्दा नेतृत्व ही है और इस बात को लेकर विपक्षी दलों के बीच अच्छी-खासी खींचतान भी है। जरा टाइमिंग पर गौर की जियेगा जिस समय मोदी सरकार को घेरने के लिए ममता बनर्जी विपक्ष के नेताओं से बातचीत के लिए दिल्ली आईं ठीक उसी समय कांग्रेस बेहद सक्रिय हो गयी। राहुल गांधी और कांग्रेस के आला नेता लगातार विपक्ष के नेताओं के साथ बैठकें कर रहे हैं और मीडिया को भी संयुक्त रूप से संबोधित कर रहे हैं। इससे पहले कांग्रेस के नेता राष्ट्रीय राजनीति के परिदृश्य से एकदम गायब थे। भले यह कहा जा सकता है कि अभी संसद का सत्र चल रहा है इसलिए कांग्रेस को सक्रिय होना ही था लेकिन जानकार सूत्रों का यही कहना है कि कांग्रेस की ओर से अप्रत्यक्ष रूप से ममता बनर्जी को संदेश दिया गया है कि बिना उसकी भागीदारी और बिना उसके नेतृत्व वाला विपक्षी गठबंधन बन ही नहीं सकता और बन भी गया तो चल नहीं सकता। भारत का राष्ट्रीय राजनीतिक इतिहास भी यही कहता है कि कांग्रेस ने अपने समर्थन से चलने वाली किसी भी सरकार को कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया है। हाँ, कांग्रेस के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकारें जरूर अपना कार्यकाल पूरा कर पायी हैं। खैर ममता बनर्जी पर ही केंद्रित रहा जाये तो यह साफ दिख रहा है कि तीन बार बंगाल का मैदान जीतने वालीं तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ने इस बार अपने लिये बड़ा लक्ष्य तय कर लिया है। इसके लिए उन्होंने रणनीति बनाकर मेहनत भी शुरू कर दी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के और किसी सुझाव को वह भले नहीं मानें लेकिन आत्मनिर्भर बनने का मोदी का रास्ता उन्हें जरूर भा गया है। इसीलिए तृणमूल कांग्रेस हिंदी पट्टी के राज्यों में अपना आधार बढ़ाने के लिए जल्द ही वहाँ चुनावी मैदान में उतरेगी। तृणमूल कांग्रेस का प्रयास रहेगा कि पश्चिम बंगाल के बाहर भी चुनाव जीता जाये जिससे समय आने पर अन्य दल उसके नेतृत्व में या उसके साथ खड़े हो सकें। देखा जाये तो राजनीति में महत्वाकांक्षी होना गलत नहीं है और शीर्ष पद की आकांक्षा सबको रखनी ही चाहिए लेकिन अपने लिये बड़ी आकांक्षा रखने और लोगों की आकांक्षाएं पूरी करने में बड़ा फर्क होता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि देश में आज कई समस्याएं हैं और वर्तमान सरकार की ओर से कई बड़ी चुनौतियों पर विजय पाना अभी बाकी है। ऐसे में विपक्ष की ओर से यदि देश के सामने विकल्प पेश करने का प्रयास किया जा रहा है तो इसमें कुछ गलत नहीं है। लेकिन विपक्ष को समझना होगा कि सिर्फ मोदी विरोधी एजेंडे के जरिये ही भाजपा का मुकाबला नहीं किया जा सकता। भाजपा का मुकाबला करना है तो आपको जनता के सामने इस बात की रूपरेखा पेश करनी होगी कि वर्तमान चुनौतियों और समस्याओं से वह कैसे निबटेंगे। साथ ही विपक्षी दलों को समस्याओं का हल निकालने का अपना ट्रैक रिकॉर्ड भी जनता को बताना होगा क्योंकि इस देश ने देखा है कि कैसे किसानों की कर्ज माफी या अन्य लोक लुभावन वादों के सहारे सत्ता हासिल करने वाले दल बाद में अपने वादों पर चुप्पी साध जाते हैं।

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