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पश्चिम बंगाल में राजनैतिक संगर्ष के कारण राष्ट्रपति शासन बेहद जरूरी

हिन्द संबाद आसनसोल : कई दिनों पहले पूर्व राज्यपाल गोपाल कृष्णा गाँधी ने भी स्वीकार किया की बंगाल की राजनैतिक हिंसा का पुराना इतिहास है जो दशकों से खुनी राजनैतिक संगर्ष चुनाव के वक्त होना लाजमी है जहाँ तक पश्चिम बंगाल की बात है तो जिस तेजी के साथ तृणमूल कांग्रेस के नेता पार्टी छोड़ कर भाजपा में आ रहे हैं वह दर्शाता है कि सत्तारुढ़ खेमा अब कमजोर हो चुका है भाजपा ने तय किया है कि हर महीने पार्टी के केंद्रीय नेता बंगाल का दौरा करेंगे। यही नहीं ममता बनर्जी ने माँ, माटी और मानुष का नारा दिया था उसके साथ भी उन्होंने न्याय नहीं किया है। सवाल उठ रहा है कि क्या पश्चिम बंगाल राष्ट्रपति शासन की ओर बढ़ रहा है? यदि हम पश्चिम बंगाल में निष्पक्ष चुनाव चाहते हैं तो वाकई राष्ट्रपति शासन बेहद जरूरी है लेकिन राष्ट्रपति शासन लगा कर चुनाव कराना हमारी संवैधानिक व्यवस्था पर एक गंभीर सवाल भी खड़ा करेगा साथ ही राष्ट्रपति शासन लगाते ही इस समय बैकफुट पर चल रही तृणमूल कांग्रेस फ्रंटफुट पर आकर खेलने लगेगी। यह भी सवाल उठेगा कि क्या भारतीय निर्वाचन आयोग और केंद्रीय सुरक्षा बल निष्पक्ष और पारदर्शी तथा भयमुक्त चुनाव करा पाने में सक्षम नहीं हैं जो सरकार को बर्खास्त करना पड़ा? इसके अलावा केंद्र सरकार शायद कोई और राजनीतिक झंझट भी मोल नहीं लेना चाहेगी क्योंकि यदि पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगाया गया तो फिर विपक्षी दलों का राष्ट्रपति से मिलना, राज भवनों के बाहर धरना और विरोध प्रदर्शन शुरू हो जाएंगे। बहरहाल पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री सदैव लोकतंत्र की बात करती हैं और संघवाद का हवाला भी देती हैं लेकिन पिछले कई दिनों से साफ दिख रहा है कि पश्चिम बंगाल में कानून का शासन नहीं रह गया है और जिस तरह से केंद्र सरकार के साथ असहयोग किया जा रहा है वह संघवाद के प्रति मुख्यमंत्री के रूख पर सवाल खड़े करता है।पश्चिम बंगाल में आक्रामक राजनीति पर ज्यादा आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हमें याद रखना चाहिए कि ममता बनर्जी ने आक्रामक रुख अपना कर, सड़कों पर उतर कर, वाम शासन से सीधे भिड़ कर, वाम कार्यकर्ताओं के आतंक का सीधा सामना करके, वाम कार्यकर्ताओं के हमलों में कई तृणमूल कार्यकर्ताओं को खोकर एक संघर्षशील नेत्री की छवि बनाई और संघर्ष, सहानुभूति तथा सोच के चलते वह वाम के मजबूत गढ़ को उखाड़ फेंकने में कामयाब रही थीं। जरा याद कर लीजिये नंदीग्राम आंदोलन को। जरा याद कर लीजिये सिंगूर के आंदोलन को। अब ठीक ममता के स्टाइल में भाजपा उन्हें राजनीतिक रूप से पटखनी देना चाहती है। भाजपा का आक्रामक रुख दर्शा रहा है कि वह तृणमूल शासन से भिड़ने को पूरी तरह तैयार है। आज भाजपा कार्यकर्ताओं पर भी उसी तरह हमले हो रहे हैं जैसे कभी तृणमूल कार्यकर्ताओं पर होते थे। आज भाजपा नेताओं पर भी उसी तरह हमले हो रहे हैं जैसे कभी तृणमूल नेताओं पर होते थे। बंगाल में बदलाव की बयार बह रही है यह सिर्फ सोशल मीडिया पर चल रही कोई पोस्ट नहीं है। 2019 के लोकसभा चुनावों में जिस तरह तृणमूल कांग्रेस को झटका लगा और भाजपा का आधार व्यापक रूप से पूरे बंगाल में बढ़ा उसे पार्टी 2021 के विधानसभा चुनावों में और आगे बढ़ाना चाहती है और उसका लक्ष्य अब राज्य की सत्ता हासिल करना है।भाजपा धीरे-धीरे उन राज्यों में जहाँ वह कांग्रेस से सीधी लड़ाई में थी, वहां कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर चुकी है और अब क्षेत्रीय दलों से भिड़ंत में भी उसे अच्छी सफलता मिल रही है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बसपा ने विधानसभा चुनावों में अलग-अलग और लोकसभा चुनावों में भाजपा से मिलकर मुकाबला किया लेकिन कुछ हासिल नहीं हुआ। त्रिपुरा में भाजपा ने वाम का मजबूत गढ़ ढहा दिया जबकि कांग्रेस वहां ऐसा कर पाने में विफल रही थी। हाल ही में हैदराबाद में संपन्न नगर निकाय चुनावों में भाजपा ने टीआरएस और ओवैसी की पार्टी को जबरदस्त चुनौती पेश की। जहाँ तक पश्चिम बंगाल की बात है तो जिस तेजी के साथ तृणमूल कांग्रेस के नेता पार्टी छोड़ कर भाजपा में आ रहे हैं वह दर्शाता है कि सत्तारुढ़ खेमा अब कमजोर हो चुका है। यही नहीं ममता बनर्जी ने माँ, माटी और मानुष का नारा दिया था उसके साथ भी उन्होंने न्याय नहीं किया है। बंगाल आज भी गरीबी और तमाम तरह की मुश्किलों का सामना कर रहा है। वामपंथियों के शासन में यदि राज्य में निवेश नहीं आया तो ममता के रुख को देखते हुए बड़े निवेशकों ने अब तक बंगाल से दूरी ही बनाये रखी है। केंद्र सरकार के साथ सदैव असहयोग का रुख भी बंगाल से निवेशकों को दूर रख रहा है। राज्य की पुलिस व्यवस्था पर समय-समय पर अदालती सवाल भी दर्शाते हैं कि शासन को किस तरह चलाया जा रहा है। राजनीति और लोकतंत्र में संवाद सबसे मजबूत और जरूरी पक्ष है और इसमें हिंसा के लिए किसी तरह का कोई स्थान नहीं है लेकिन बंगाल की राजनीति में हिंसा ही हावी है। राज्यपाल की सख्त चेतावनी को देखते हुए ममता बनर्जी को सतर्क होना चाहिए लेकिन उम्मीद कम ही है कि तृणमूल कांग्रेस इस चेतावनी को सकारात्मक रूप में लेगी।जेपी नड्डा के काफिले पर हुए हमले को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने गंभीरता से लिया है इस पर भी राज्य प्रशासन को चेत जाना चाहिए। बंगाल की राजनीति में यह जो रक्तचरित्र आ गया है उसको देखते हुए लगता नहीं है कि यह रबिन्द्रनाथ टैगोर का बंगाल है। नड्डा वापस आ गये हैं और अब अमित शाह बंगाल जा रहे हैं। भाजपा ने तय किया है कि हर महीने पार्टी के केंद्रीय नेता बंगाल का दौरा करेंगे। दूसरी पार्टियों को यह ध्यान रखना होगा कि जितना भाजपा पर हमला किया जायेगा उतना पार्टी मजबूत होगी क्योंकि हमलों को भुनाना शायद भगवा पार्टी से बेहतर कोई नहीं जानता।